पिछले कुछ दिनों से आम आदमी पार्टी से निष्कासित पूर्व मंत्री कपिल मिश्रा ने दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। कपिल मिश्रा नए नए आरोप लगाकर अरविन्द केजरीवाल को घेरने की कोशिश में लगे हुए हैं, हालाँकि अभी तक उन्होंने जितने आरोप लगाए हैं उनमे से किसी भी आरोप को साबित नहीं कर पाए हैं। कपिल मिश्रा द्वारा लगाए आरोप कितने सही साबित होंगे ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा। कपिल मिश्रा आम आदमी पार्टी से निष्कासित किये जा चुके हैं तो ज़ाहिर है अब किसी और पार्टी में शामिल होंगे, हो सकता है किसी राजनैतिक पार्टी से उनकी इस बारे में बात चल रही हो। राजनीति में लोग अपने राजनैतिक फायदे-नुकसान के आधार पर पार्टी बदलते रहे हैं। कहते हैं राजनीति में न कोई स्थाई दोस्त होता है और न स्थाई दुश्मन होता है। वक़्त और राजनैतिक समीकरण के हिसाब से राजनैतिक रिश्ते बनाये और तोड़े जाते हैं।
जब तक राजनेता किसी पार्टी के सदस्य होते हैं अपनी पार्टी और अपने नेता को सबसे बेहतर बताते हैं। अपनी पार्टी की नीति और सिद्धांत को अन्य सभी पार्टियों से अच्छा मानते हैं। अपने पार्टी के नेतृत्व को योग्य और ईमानदार मानते हैं, लेकिन जैसे ही वो पार्टी से निष्कासित कर दिए जाते हैं या अपनी पार्टी छोड़कर कोई दूसरी पार्टी में शामिल होते हैं तो फिर उन्हें अपनी पूर्व पार्टी और नेतृत्व में कमियां और बुराइयां नज़र आने लगती हैं। अपनी पूर्व पार्टी और नेतृत्व पर आरोपों की बौछार शुरू हो जाती है, और जिस नई राजनैतिक पार्टी में शामिल होते हैं उस पार्टी और उसके नेतृत्व को सर्वश्रेष्ट बताने लगते हैं भले ही पहले अपनी पूर्व पार्टी में रहते हुए इस पार्टी पर कितने भी आरोप क्यों न लगाते रहे हों। जब कोई नेता एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल होता है तो वो दूसरी पार्टी भी उस नेता को हाथों हाथ लेती हैं क्योंकि उसके दूसरी पार्टी में शामिल होने से उस राजनैतिक पार्टी को कई तरह के फायदे मिलते हैं। उस नेता का वोटबैंक अपनी पार्टी को मिलने की सम्भावना होती है, विरोधी पार्टी पर आरोप लगाने का मौक़ा मिलता है साथ ही विरोधी पार्टी के कमज़ोर होने से राजनैतिक फायदा भी मिलता है।
राजनीति में समय और चुनावी समीकरण के आधार पर गठबंधन बनाये और तोड़े जाते हैं। कभी एक दूसरे के धुर विरोधी रही पार्टियां सरकार बनाने के लिए गठबंधन कर लेती हैं। देश की राजनीति में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिनमे एक दूसरे की धुर विरोधी पार्टीयों ने सत्ता के लिए गठबंधन किया है, साथ ही ऐसे भी कई उदाहरण हैं जिनमे चुनावी समीकरण के हिसाब से गठबंधन को तोड़ा भी है। वर्तमान में कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी गठबंधन की सरकार है, दोनों ही पार्टियों के विचारों में कोई समानता न होने के बावजूद सत्ता के लिए गठबन्धन की सरकार चला रहे हैं। बिहार में पहले नीतीश कुमार और बीजेपी की गठबंधन की सरकार थी बाद में गठबंधन टूट गया और वर्तमान में कभी एक दूसरे के विरोधी रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की गठबंधन की सरकार है। हाल ही हुए पांच राज्यों के चुनाव में अवसरवाद की राजनीति के कई उदाहरण नज़र आये। कांग्रेस और समाजदवादी पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा और चुनाव के नतीजों के बाद दोनों ही पार्टियों के नेता गठबन्धन को अपनी गलती कहते नज़र आये। गोवा के चुनावी नतीजों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन वह निर्दलीय और अन्य विधायक को जोड़कर बीजेपी ने सरकार बनाई। गोवा में निर्दलीय और अन्य विधायकों ने बीजेपी को समर्थन देकर अवसर का फायदा हासिल किया।
जब कोई नेता अपनी पार्टी छोड़कर अन्य किसी पार्टी में शामिल होता है तो लोग और मीडिया उसे बाग़ी कहते हैं सही मायने में उसे बाग़ी के बजाये अवसरवादी कहना ज़्यादा सही है। राजनीति में फायदे और नुकसान के हिसाब से फेरबदल होते रहते। वर्तमान में अवसर का फायदा उठाकर राज करने की नीति ही राजनीति बन गई है। हर मुद्दे को अवसर को तौर पर इस्मेमाल किया जाने लगा है। सिद्धांतों की जगह अवसरवाद ने ले ली है। जब तक राजनेता और राजनैतिक पार्टियां अवसरवाद को छोड़कर देशहित के बारे में सोचना होगा तभी देश का विकास संभव हो पायेगा।
©Nazariya Now
सैनिकों की शहादत पर होती राजनीति
कितना व्यावहारिक है देश में एक साथ चुनाव होना ?
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