मोदी सरकार द्वारा आधार के दायरे को व्यापक बनाने का कार्य
निरन्तर जारी है। 2009 में जब तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा आधार कार्ड
बनाने की योजना शुरू की गयी थी, तो कहा गया था कि इसमें पंजीकरण करवाना
स्वैच्छिक होगा। इसका उपयोग शंका की स्थिति में किसी व्यक्ति की सही पहचान
को सुनिश्चित करना होगा। उस वक़्त इसका मक़सद बताया गया था, लाभकारी
कार्यक्रमों को ज़रूरतमन्द ग़रीबों-वंचितों तक पहुँचाना, छद्म लाभ लेने
वालों को अलग करना, भ्रष्टाचार को कम करना, सरकारी योजनाओं को पारदर्शी और
कुशल बनाना, आदि। जनता को यह समझाने की कोशिश की गयी कि सरकारी योजनाओं का
लाभ उठाने के लिए हमें अपने अधिकारों और निजता से कुछ समझौता तो करना ही
पड़ेगा और हर व्यक्ति की पहचान और हर जानकारी सरकार के पास होने से वह
ग़रीबों के फ़ायदे के लिए न सिर्फ़ सही नीतियाँ बना पायेगी, बल्कि उनका
फ़ायदा भी सही व्यक्तियों तक पहुँचा पायेगी, जिससे ग़रीबी मिटाने में सफलता
मिलेगी। लेकिन इतने सालों में इसके लागू होने का तजुर्बा क्या बता रहा है ?
हालाँकि
कहने के लिए यह अभी भी स्वैच्छिक है, लेकिन न सिर्फ़ सरकारी योजनाओं का
लाभ प्राप्त करने बल्कि दैनन्दिन जीवन के ज़रूरी काम-काज के लिए भी इसे
आवश्यक बनाया जा रहा है – चाहे स्कूली पढ़ाई हो, बैंक खाता हो, राशन या
मोबाइल लेना हो, अस्पताल में इलाज से लेकर स्कूल में बच्चों को मिलने वाला
दोपहर का भोजन, वेतन से पीएफ़-पेंशन प्राप्त करना, कुछ भी काम करना हो
वर्तमान सरकार एक-एक कर प्रत्येक कार्य के लिए आधार का होना अनिवार्य कर
रही है, ताकि आधार बनवाये बगै़र किसी व्यक्ति का रोज़मर्रा का साधारण जीवन
ही नामुमकिन और उसकी स्थिति समाज से बहिष्कृत जैसी हो जाये। इस सबसे यह तो
स्पष्ट ही है कि आधार का असली मक़सद जनता तक पारदर्शिता और कुशलता से
नागरिक सुविधाएँ पहुँचाना नहीं है। तो फिर मक़सद क्या है?
ग़रीबों का राशन-पेंशन बन्द कर सरकारी बचत
सरकार
का कहना है कि आधार के द्वारा व्यक्तियों की सही पहचान के द्वारा सरकारी
योजनाओं में होने वाली चोरी और भ्रष्टाचार को कम किया गया है, जिससे इनके
ख़र्च में भारी बचत हुई है, जिसे विकास कार्य में लगाया जायेगा। इस बचत का
कोई विस्तृत विवरण आज तक कहीं उपलब्ध नहीं है, लेकिन आधार अथॉरिटी के
मुखिया ए बी पाण्डे ने 12 जुलाई को इण्डियन एक्सप्रेस में विश्व बैंक के एक
अध्ययन के हवाले से आधार द्वारा फ़र्ज़ी-नक़ली सुविधा प्राप्त करने वालों
को समाप्त कर 56 हज़ार करोड़ रुपये की बचत का दावा किया है। वैसे इस रिपोर्ट
के मूल को पढ़ने से पता चलता है कि जिन योजनाओं में यह बचत बतायी गयी है,
उन पर कुल ख़र्च ही इतना है! लेकिन बचत की रक़म जितनी भी हो उससे ज़्यादा
ज़रूरी यह विश्लेषण है कि यह बचत किस तरह और कहाँ से हो रही है।
इस
बचत के स्रोत का एक उदाहरण 11 जुलाई के द हिन्दू में प्रकाशित रिपोर्ट से
मिलता है। इसके अनुसार कर्नाटक के प्रोविडेण्ट फ़ण्ड विभाग से पेंशन पाने
वाले 5 लाख में से 30% अर्थात डेढ़ लाख पेंशनरों को 2 महीने से उनकी पेंशन
प्राप्त नहीं हुई है क्योंकि उसको आधार से जोड़ दिया गया है। अभी पेंशनरों
द्वारा साल में एक बार दिया जाने वाला जीवित होने का सर्टिफि़केट देने से
काम नहीं चलेगा, बल्कि उन्हें ख़ुद बैंक, आदि में जाकर हाथ की छाप को मशीन
द्वारा सत्यापन करा कर ख़ुद को जीवित होने का प्रमाण देना होगा। लेकिन
पेंशनरों की एक बड़ी संख्या अत्यन्त वृद्ध और बीमारी से अशक्त होती है उनके
लिए पहले आधार बनवाना और फिर बैंक जाकर अपने जीवित होने का सत्यापन कराना
बेहद मुश्किल होगा। इस वृद्धावस्था में कुछ के हाथ तो इस जैविक सूचना
इकठ्ठा और सत्यापित करने में भी असमर्थ होंगे। नतीजा यह कि वे जीवन भर की
मेहनत के बाद पायी अपनी ही कमाई की बचत से प्राप्त पेंशन के सहारे से भी
सबसे अधिक ज़रूरत के वक़्त वंचित कर दिये जायेंगे। लेकिन मौजूदा सत्ताधारी
इसे अन्याय और लूट न कहकर बचत बता रहे हैं। यह सिर्फ़ एक राज्य की स्थिति
है, सम्पूर्ण देश में ऐसी संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है।
यह
स्थिति तो सरकारी नौकरी में रह चुके तुलनात्मक रूप से शिक्षित और सक्षम
व्यक्तियों की है। गाँवों में वृद्धावस्था पेंशन पाने वाले ग़रीब,
अशिक्षित, कमज़ोर व्यक्तियों की हालत क्या होगी जिनके लिए शहर में बैंक
जाना भी मुश्किल है। सिर्फ़ राजस्थान में ही जब सामाजिक सुरक्षा पेंशन को
आधार से जोड़ा गया तो जिनके पास आधार नहीं था, या जिनकी जानकारी में
ग़लतियाँ थीं, ऐसे 10 लाख से अधिक लोगों को मृत या डुप्लीकेट कहकर उनकी
पेंशन बन्द कर दी गयी। लेकिन जब शिकायतों के बाद कुछ सामाजिक संगठनों ने
जाँच की तो पाया गया कि इनमें से बहुसंख्या मृत नहीं बल्कि जीवित थे। लेकिन
ये सब लोग अत्यन्त ग़रीब, वृद्ध, असहाय, विधवा महिलाएँ, आदि थे, जिन्हें
प्रशासनिक तन्त्र ने एक झटके में 500 रुपये महीना पेंशन से वंचित कर दिया।
नवभारत टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार में एक गाँव का नाम पानापुर
करायत है, लेकिन उस गाँव में आधार बनाने वालों ने सब आधार के पतों में उसका
नाम पानापुर करैत कर दिया। अब वृद्धावस्था पेंशन वाले विभाग ने पता मेल न
खाने के कारण इस गाँव के सब वृद्धों की पेंशन रोक दी है।
10
जुलाई के कैच न्यूज़ में झारखण्ड की सार्वजनिक राशन प्रणाली पर आधार के
प्रभाव के बारे में किये गये एक सर्वे की विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार इसने
राशन वितरण में पहले से मौजूद समस्याओं के साथ नयी परेशानियों को जोड़कर एक
बड़ी संख्या में ग़रीब लोगों को सस्ते सार्वजनिक राशन की सुविधा से वंचित कर
दिया है। रजिस्टर में एण्ट्री के बावजूद राशन न देने या कम मात्रा में देने
की समस्या तो आधार से हल होने का सवाल ही नहीं था, क़रीब 15% और लोग हाथ
की छाप की जैविक सूचना के सत्यापन न होने से हर महीने राशन से वंचित हो रहे
हैं, क्योंकि कठोर श्रम से घिसे हाथों का सत्यापन करने में मशीनें असमर्थ
हैं। जिन लोगों को राशन मिल भी रहा है, उन्हें भी नेटवर्क या बिजली न होने,
मशीन की खराबी या सर्वर डाउन होने के कारण अक़सर एक से ज़्यादा बार चक्कर
लगाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है अर्थात एक और मज़दूरी से हाथ धोना दूसरे
आने-जाने का अतिरिक्त ख़र्च वहन करने के मज़बूरी। इसके अतिरिक्त वे लोग हैं
जो किसी वजह से आधार नहीं बनवा पाये हैं। इनको तो अब प्रशासनिक व्यवस्था
द्वारा जीवित नागरिक होने की मान्यता ही नहीं दी जा रही है।
स्वयं
सरकारी आँकड़ोंं के अनुसार अब तक 115 करोड़ आधार बनाये गये हैं। स्वाभाविक
तौर पर ही इसमें से कुछ व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है और 86 लाख आधार
रद्द भी किये गये हैं। भारत की जनसंख्या अभी 130 करोड़ से अधिक है। अर्थात
लगभग 20 करोड़ नागरिकों के पास आधार नहीं है। ये निर-आधार लोग कौन हैं? आधार
की शुरुआत के समय कहा गया था कि जिन के पास कोई पहचानपत्र नहीं हैं, वे
कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाते हैं और आधार के द्वारा उन्हें
पहचानपत्र देने से वे भी इन योजनाओं का लाभ ले सकेंगे। लेकिन आधार बनाते
समय पहले से कोई पहचानपत्र होना ही एक आवश्यकता है तो इन लोगों का आधार भी
नहीं बनता। हालाँकि परिचयदाता के द्वारा भी आधार देने का प्रावधान है,
लेकिन उस तरह से मात्र 2 लाख अर्थात नगण्य आधार ही आज तक जारी हुए हैं। इस
तरह जो सबसे ग़रीब, असहाय और कमज़ोर लोग हैं तथा सरकारी योजनाओं के लाभ से
पहले ही वंचित हैं, उन्हें अब इससे पूरी तरह बाहर कर दिया गया है। अब तो
राशनकार्ड हो या पेंशन हर जगह इन लोगों को फ़र्ज़ी या मृत घोषित कर इनके
नामों को इन योजनाओं के लाभार्थियों की सूची में से ही काट दिया जा रहा है।
इस प्रकार आधार देश के ग़रीब लोगों को जो थोड़ी-बहुत सरकारी कल्याणकारी
योजनाएँ हैं भी, उनके भी लाभ से वंचित करने का एक बड़ा औजार बन गया है।
जहाँ
तक आधार के द्वारा विभिन्न लाभकारी योजनाओं के स्थान पर सीधे कैश देने का
सवाल है, उसमें आधार क्या कर सकता है, व्यक्ति की सही पहचान की बात को अगर
मान भी लिया जाये तो। किस व्यक्ति को फ़ायदा दिया जाये यह तय करने का काम
तो उसी राजनीतिक-प्रशासनिक तन्त्र का है जिसका अभी है। फिर यह कैश वितरण के
लिए बैंक का एजेण्ट और एक बिचौलिया बन जाता है जो आधार के सत्यापन के
ज़रिये कैश देता है। इसमें कुछ स्वचालित नहीं है और लूट-खसोट का तन्त्र न
सिर्फ़ ज्यों का त्यों है, बल्कि आधार के ज़रिये लाभ के अधिकारी को परेशान
कर लाभ से वंचित करने के बहाने उनके पास और बढ़ जाते हैं। झारखण्ड, दिल्ली,
छत्तीसगढ़, गुजरात सब राज्यों में जहाँ भी इसे ज़रूरी बनाया गया है, वहाँ न
सिर्फ़ इससे कार्यकुशलता घटी है, बल्कि यह सार्वजनिक सेवाओं से ग़रीब और
असहाय व्यक्तियों – आदिवासियों, दलितों, वृद्धों, महिलाओं-विधवाओं, अपंगों –
को वंचित करने का ज़रिया बन गया है तथा इन सेवाओं में भ्रष्टाचार और चोरी
को बढ़ा रहा है।
वैसे तो
भ्रष्टाचार व चोरी को रोकने के नाम पर लाये गये आधार का अपना पूरा ढाँचा ही
भ्रष्टाचार पर टिका है। 12 जुलाई के हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के
अनुसार अब तक आधार बनाने वाली साढ़े 6 लाख एजेंसियों में से 34 हज़ार से
अधिक को भ्रष्ट और जालसाजीपूर्ण गतिविधियों में लिप्त पाया गया है। इसमें
फ़र्ज़ी दस्तावेज़ पर आधार बनाना, पैसा लेकर पता बदलना, आदि शामिल हैं।
आधार बनवाने के लिए दिये गये दस्तावेज़ इनके पास ही छोड़ दिये गये हैं,
जिनका दुरुपयोग करने में इनके ऊपर कोई रोकथाम नहीं है। इससे भी बढ़कर जो हाथ
और आँखों की जैविक जानकारी आधार बनवाने के इन्होंने एकत्र की थी,
प्रतिलिपि भी इनके पास ही छोड़ दी गयी है, जिसका इस्तेमाल ये दूसरों के नाम
पर कर सकते हैं। इसी तरह जब रिलाइंस जिओ या किसी बैंक को आधार सत्यापन के
लिए हाथ स्कैन कराया जाता है तो उनके पास भी यह रह जाता है और वे इसको पुनः
उपयोग कर सकते हैं। ऐसे मामले पहले ही सामने आ चुके हैं। उपरोक्त रिपोर्ट
में ही लातेहार, झारखण्ड के मामले का जि़क्र है कि जब एक बुजुर्ग पति-पत्नी
बैंकिंग एजेण्ट के पास अपनी पेंशन का पैसा निकालने गये तो पता चला कि वह
तो पहले ही निकाला जा चुका है। ख़ुद आधार अथॉरिटी के अनुसार सिर्फ़ छोटी
निजी एजेंसियाँ ही नहीं एक्सिस बैंक, देना बैंक, बैंक ऑफ़ इण्डिया और
एनएसडीएल जैसे बड़े बैंक और संस्थाएँ इन भ्रष्ट गतिविधियों में लिप्त पाये
गये हैं। इससे आधार द्वारा भ्रष्टाचार और चोरी को समाप्त करने के मक़सद की
बात पूरी तरह ग़लत सिद्ध होती है।
इस
प्रकार भ्रष्टाचार में कमी नहीं बल्कि सबसे ग़रीब, वंचित लोगों को इन
योजनाओं के लाभ से वंचित करना ही आधार से होने वाली बचत का मुख्य आधार है
और सरकार बता रही है कि यही ग़रीब लोग ही चोरी कर रहे थे, जिन्हें अब इससे
रोक दिया गया है। यह ऐसी शासन व्यवस्था ही कर सकती है जो सबको स्वास्थ्य
सुविधाएँ उपलब्ध न होने को समस्या नहीं मानती, बल्कि उसकी नज़र में जो लोग
बगै़र पहचान का सबूत दिये इलाज करवाना चाहते हैं, वे मरीज समस्या हैं। ऐसी
हुक़ूमत के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन की अनुपलब्धता और बच्चों में बढ़ता
कुपोषण समस्या नहीं है, बल्कि बग़ैर पहचान का सबूत दिये स्कूल में मिड डे
मील लेने आ गये बच्चे समस्या हैं। यह सिर्फ़ ऐसी हुक़ूमत कर सकती है जो
ग़रीब, मेहनतकश लोगों की ग़रीबी का कारण वर्तमान व्यवस्था में निहित शोषण
को नहीं मानती, बल्कि उसकी नज़र में ये सब लोग काहिल, कामचोर, भ्रष्ट हैं
जो मेहनती, प्रतिभाशाली पूँजीपतियों के पुरुषार्थ से कमाये धन को मिड डे
मील, राशन और इलाज आदि के ज़रिये लूट लेना चाहते हैं। इसलिए यह हुक़ूमत ऐसी
ताक़त चाहती है कि वह जब जिसे अपराधी या सन्देहास्पद माने, उसकी पहचान कर
उसे ये सुविधाएँ लेने के बहाने इस तथाकथित लूट से रोक सके।
निगरानी तन्त्र
साथ
ही बैंक खातों से लेकर मोबाइल फ़ोन तक में आधार को ज़रूरी करना बताता है
कि यह एक ऐसी निगरानी व्यवस्था भी है जो देश के हर नागरिक को हर समय उसके
चाहे बिना ही पहचान कर सके, उसकी हर गतिविधि पर नज़र रख सके और जहाँ, जब
चाहे उसे किसी गतिविधि से रोक सके, उससे ख़फ़ा हो जाये तो उसका राशन, वेतन,
पेंशन, स्कूल में बच्चे के दाखि़ले, अस्पताल में इलाज, मोबाइल पर बात
करने, इण्टरनेट के ज़रिये कुछ करने-पढ़ने, पुस्तकालय से कोई किताब लेने,
कहीं जाने के लिए ट्रेन/बस का टिकट लेने अर्थात किसी भी सुविधा से वंचित कर
सके। आधार असल में सर्वाधिक वंचित ज़रूरतमन्दों को लाभकारी योजनाओं के
फ़ायदे से वंचित करने और सरकारी तन्त्र के क़रीबियों को फ़ायदा पहुँचाने का
औजार तो है ही, साथ में यह नागरिकों पर निग़हबानी और जासूसी करने का तन्त्र
है जो न सिर्फ़ हमारी निजता का हनन करता है बल्कि हमारे जनतान्त्रिक
अधिकारों को कुचलने, गला घोंटने का फन्दा तैयार कर रहा है। न सिर्फ़ सारे
सरकारी कल्याण कार्यक्रम, जिनमें पहले से ही बहुत सी खामियाँ थीं, अब पूरी
तरह बरबाद किये जा रहे हैं बल्कि हमारे दैनन्दिन जीवन के हर क्षेत्र पर
सरकारी तन्त्र का शिकंजा कसने और जनतान्त्रिक आज़ादी और अभिव्यक्ति का गला
घोंटने की भी तैयारी की जा रही है।
न्यायपालिका की भूमिका
यहीं
पर हम उच्चतम न्यायालय की भूमिका पर भी ग़ौर करते हैं जिसे जनतन्त्र,
संविधान और नागरिक अधिकारों का रक्षक बताया जाता है और जिससे बहुत से
जनवादी-लिबरल लोग जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त की उम्मीद रखते हैं। यह सच
है कि उच्चतम न्यायालय ने कई बार सरकार को कहा है कि वह आधार सूचना की उचित
सुरक्षा का क़ानून बनाये बग़ैर इसे आगे न बढ़ाये और इसे किसी भी सार्वजनिक
सेवा के लिए आवश्यक न करे। लेकिन सरकार जब ऐसा करती है तो उसको रोकना तो
छोड़िये, उच्चतम न्यायालय उसकी सुनवाई के लिए भी तैयार नहीं होता, अभी तक
ऐसी सुनवाई नहीं हुई है। उलटे ख़ुद इस न्यायालय ने ही मोबाइल सिम कार्ड के
लिए आधार सत्यापन को ज़रूरी करने का आदेश भी दे दिया है। आधार की
अनिवार्यता को चुनौती देने के लिए कई लोग उच्चतम न्यायालय जा चुके हैं।
काफ़ी सुनवाई के बाद 11 अगस्त 2015 को इसकी एक खण्डपीठ ने फै़सला दिया कि
यह एक महत्वपूर्ण विषय है और इसकी सुनवाई और फै़सला एक नौ सदस्यीय संविधान
पीठ को करना चाहिए, इसकी सिफ़ारिश भी मुख्य न्यायाधीश से कर दी और तब तक के
लिए सरकार से इसे अनिवार्य न बनाने के लिए कहा। लेकिन याचिकाकर्ताओं
द्वारा कई बार स्मरण दिलाये जाने के बावजूद भी यह संविधान पीठ नहीं बनायी
गयी। इस बीच में सरकार एक के बाद एक बहुत से कार्यों के लिए आधार को
अनिवार्य कर भी चुकी है।
सुप्रीम
कोर्ट के ही पहले निर्देश के अनुसार सरकार के इस क़दम पर रोक लगाने के लिए
कई याचिकाकर्ता विभिन्न पीठों के पास जा चुके हैं, लेकिन वह इस पर फै़सला
देने के बजाय संविधान पीठ के लिए इसे छोड़ दे रहे हैं। लम्बे इन्तज़ार के 23
महीने के बाद अब मुख्य न्यायाधीश ने संविधान पीठ द्वारा 18-19 जुलाई को
इसकी सुनवाई की तारीख़ दी है। लेकिन इस बीच सुनवाई के इन्तज़ार में सरकार
पहले ही आधार को बहुत से कार्यों के लिए प्रभावी रूप से अनिवार्य बना बहुत
से नागरिकों को आधार बनवा लेने के लिए विवश कर चुकी है। अर्थात अब न्यायालय
के फै़सले का कोई बहुत अर्थ रह नहीं गया है। नोटबन्दी के वक़्त भी हम यही
स्थिति देख चुके हैं। उस मामले पर भी वक़्त पर सुनवाई करने के बजाय सुप्रीम
कोर्ट ने इसी महीने कुछ दिन पहले सरकार को नोटिस देकर पूछा है कि जनता को
पुराने नोट बदलने का पर्याप्त मौक़ा क्यों नहीं दिया गया! अर्थात चिड़िया के
खेत चुग लेने के बाद रखवाली के इन्तज़ाम की बात की जा रही है जो पूरी तरह
बेमतलब है। इस तरह हम पाते हैं कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था में संसद और
न्यायालय जैसे अंग सत्ताधारी वर्ग के आक्रमण से जनता के अधिकारों की रक्षा
में कोई प्रभावी भूमिका निभाने के औजार नहीं हैं।
लेखक : मुकेश असीम
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