‘कवि’ और ‘कविता’। देखने, पढ़ने और सुनने में ये दो शब्द छोटे जरूर लगते हैं लेकिन इनकी विशालता धरती, आसमान और सागर से भी बड़ी है। भावों को शब्दों की माला में पिरोकर सीधा हृदय तक पहुंचाने वाले कवियों के बारे में किसी ने सच ही कहा है- ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’। यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं संस्कृत संगठन) द्वारा कवियों और कविताओं के सम्मान में 1999 में पेरिस में आयोजित अधिवेशन में प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को ‘विश्व कविता दिवस’ (World Poetry Day) के रूप में मानाने की घोषणा की गई
‘विश्व कविता दिवस’ (World Poetry Day-21 मार्च) के मौके पर प्रस्तुत है कवि व लेखक मोहित शर्मा ''ज़हन'' की कलम से सृजित दो बेहतरीन कवितायें :
खाना ठंडा हो रहा है... (कविता ) #ज़हन
साँसों का धुआं,
कोहरा घना,
अनजान फितरत में समां सना,
फिर भी मुस्काता सपना बुना,
हक़ीक़त में घुलता एक और अरमान खो रहा है...
...और खाना ठंडा हो रहा है।
तेरी बेफिक्री पर बेचैन करवटें मेरी,
बिस्तर की सलवटों में खुशबू तेरी,
डायन सी घूरे हर पल की देरी,
इंतज़ार में कबसे मुन्ना रो रहा है...
...और खाना ठंडा हो रहा है।
काश की आह नहीं उठेगी अक्सर,
आईने में राही को दिख जाए रहबर,
कुछ आदतें बदल जाएं तो बेहतर,
दिल से लगी तस्वीरों पर वक़्त का असर हो रहा है...
...और खाना ठंडा हो रहा है।
बालों में हाथ फिरवाने का फिरदौस,
झूठे ही रूठने का मेरा दोष,
ख्वाबों को बुनने में वक़्त लग गया,
उन सपनो के पकने का मौसम हो चला है...
...और खाना ठंडा हो रहा है।
तमाशा ना बनने पाए तो सहते रहोगे क्या?
नींद में शिकायतें कहते रहोगे क्या?
आज किसी 'ज़रूरी' बात को टाल जाना,
घर जैसे बहाने बाहर बना आना,
आँखों को बताने तो आओ कि बाकी जहां सो रहा है...
...और खाना ठंडा हो रहा है।
----------------------------------------------------
----------------------------------------------------
खौफ की खाल (कविता ) #ज़हन
खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
...और नदी अपनों को बहा कर ले गयी!
बहानों के फसाने चल गये,
ज़मानों के ज़माने ढल गये...
रुक गये कुछ जड़ों के वास्ते,
बाकी शहर कमाने चल दिये।
खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
गुड़िया फ़िर भूखे पेट सो गयी...
समझाना कहाँ था मुश्किल,
क्यों समीर को मान बैठे साहिल?
तिनकों को बिखरने दिया,
साये को बिछड़ने दिया?
खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
रुदाली अपनी बोली कह गयी...
रौनक कहाँ खो गयी?
तानो को सह लिया,
बानो को बुन लिया।
कमरे के कोने में खुस-पुस शिकवों को गिन लिया।
खौफ की खाल उतार दो ना...
तानाशाहों के खेल बिगड़ दो ना!
शायद उतरी खाल देख दुनिया रंग बदले,
एक दुकान में गिरवी रखा हमारा सावन...
शायद उस दुकान का निज़ाम बदले!
घिसटती ज़िन्दगी में जो ख्वाहिशें आधी रह गयीं,
कुछ पल जीकर उन्हें सुधार दो ना!
खौफ की खाल उतार दो ना...
No comments:
Post a Comment