बहुत अखर रही है आज तुम्हारी कमी। तुम्हारे साथ जीने को साँसें मचल रही हैं। हमारे प्रेम को पचास बरस तक अपने स्नेह से सींचते रहे, बहुत जल्दी लगी थी न अंतिम घड़ी में। हम तो निर्जीव होने तक तुम्हारा हाथ थामे रह गए। विश्वास नहीं होता कि तुम कल यहीं थे न अपनी पसंदीदा जगह पर और आज कहीं नहीं हो.......
बड़बड़ाते हुए दादी बरामदे में पड़ी हुई आराम कुर्सी को झिंझोड़ती रहीं जैसे दादाजी के न रहने में इसका कुसूर है। मैं दूर खड़ी देख रही थी उनकी उदासी।
पिछले तीन सालों से मैं सामने वाली बालकनी से देखा करती थी दादा-दादी की जोड़ी को। एक-दूसरे के बिना कोई काम नहीं होता था। पौधों को पानी देने से शाम की चाय तक सारा काम साथ में करते थे। अगर दादा चाय थे तो दादी मिठास। एक-दूसरे के प्रति दोनों के स्नेह ने बेटे-बहू के अलग होने का दर्द कम कर रखा था। यूँ तो बच्चे उसी शहर में रहते थे पर महीने में एक-आध बार ही मैंने उन्हें यहाँ देखा।
मेरे पति का तीन साल पहले यहाँ तबादला हुआ तब से हम सामने वाले फ्लैट में रहते थे। हम अक्सर शाम को कॉलोनी के पार्क में मिलते। दादी अपनी शादी का खुशनुमा सफर बताया करती कि कितने संघर्षो में जीवन का शुरुआती समय निकला। एक कमरे के मकान में परिधि, वर्चस्व के साथ उनके सास-ससुर भी रहते थे। कई बार बड़ा घर लेने को सोचा पर छोटी बचतों में घर की जरूरतें और बच्चों की फीस ही हो पाती थी। धीरे-धीरे सब समय कटता कुछ और करने का सोच ही नहीं पाए सिवाय बच्चों को बड़ा करने के। तबादलों की वजह से गृहस्थी भी सीमित रखी पर माँ और बाबूजी को कभी नहीं छोड़ा।
बच्चे करियर के मामले में स्वतंत्र थे। परिधि को फैशन डिजाइनर बनना था गुडगांव के इंस्टिट्यूट में उसका दाखिला कराया फिर दो साल बाद वर्चस्व को आगरा का मेडिकल कॉलेज मिल गया। इस दौरान बहुत आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ा। फिर अचानक माँ जी बीमार हो गयीं थक हार कर मुझे दिल्ली में रहना पड़ा। हफ्ते में ये आ जाते थे। बच्चों का खर्च, इलाज का पैसा और मकान का किराया आर्थिक तंगी तक पहुँचा चुका था। पी एफ से लोन कराकर ये फ्लैट लिया। इस दौरान माँ चल बसी। बच्चे अपने में व्यस्त रहने लगे। मैं और बाबूजी इसमें रह जाते थे। जब इतने लोग थे तो जगह नहीं पर्याप्त थी। अब दो बेडरूम काटने को दौड़ते। इनका रिटायरमेंट हुआ, हम सब खुश थे कि साथ में रहेंगे पर नियति तो जैसे घात लगाए बैठी थी। बाबूजी को हमसे छीन लिया।
बताते-बताते अम्मा शून्य में कुछ टटोलने लगीं। इसके बाद के सफर की गवाह तो मैं खुद ही थी कि कितने अकेले पड़ गए थे ये लोग जिन बच्चों के लिए हर खुशी की तिलांजलि देते रहे आज उनमें से कोई भी इनके साथ नहीं रहता। परिधि शादी करके हैदराबाद में बस गयी और वर्चस्व अपनी बीवी के फरमानों में सिमट कर रह जाने वाला पति मात्र बनकर रह गया। एक ही शहर में रहने के बावजूद पापा का अंतिम संस्कार करने के दूसरे ही दिन चला गया। उसकी पत्नी को एलर्जी थी वो यहाँ इतने लोगों के बीच नहीं रह सकती थी। एक बार बेटे ने ये भी न सोचा कि माँ कुछ दिन तो अकेले नहीं ही रह पाएगी। किसी तरह दादी ने जीवन के अंतिम पड़ाव वाली चुनौती से खुद को रूबरू किया।
मैं निढ़ाल सी सीढ़ियों पर बैठ गयी। न सिर्फ ये दादी बल्कि हमारा समाज ऐसी दादी और दादाजी से भरा पड़ा है जो अपने बच्चों को आला दर्जे की शिक्षा तो दे देते हैं पर नैतिक पतन पर अंकुश नहीं लगा पाते। जिसकी सजा पीढ़ी दर पीढ़ी मिलती रहती है। मुझे अपने पेट में अजीब सी हलचल महसूस हुई जैसे कि नन्हें शहजादे अभी सातवें महीने में ही बाहर की दुनिया देखने को आतुर हों। मैंने दोनों हाथों से पेट को थाम रखा था कि उसे अपने गर्भ में ही सुरक्षित रखूँ। उस बच्चे के बिना जीना तो एक सदमे के बराबर है जिसका जन्म ही जीवन की एक बलवती इच्छा हो। कितने अहसास उपजे मन में, एक-एक बूँद रक्त पिलाया, ये हांड-मांस मेरे अपने शरीर के अंदरूनी हिस्सों से बने। सारी पीड़ाओं से बड़ी प्रसव-पीड़ा के उपहार में उसका रुदन सुनूँ। जिसके होते ही मेरा 'मैं' भूल जाऊँ। खुद तो बस साँस लूँ, जीती तो हर पल उसे ही रहूँ और फिर एक दिन वो मुझे मृतप्राय छोड़ दे। क्या यही जीवन की बानगी है कि जब सुख जीने की उम्र हो तो संघर्ष करूँ उस खुशी की चाहत में जो कभी आने वाली नहीं।
लेखिका : रोली अभिलाषा
(लखनऊ, उत्तरप्रदेश)
आदरणीया रोली अभिलाषा जी आपकी कहानी पढ़ी गहरी चिंता में डूब गया ! मानव समाज से नैतिक मूल्यों का पतन इस कहानी की पीड़ा है जो आपके चमत्कृत शब्दों से स्पष्ट झलकती है। सधी लेखनी कहानी में प्रवाह बनाए रखती है। आपको अशेष शुभकामनाएं 'एकलव्य'
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका ध्रुव जी।
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