बज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे,
होता है शब-ए-रोज़ तमाशा मेरे आगे। -ग़ालिब
हालिया दिनों में सीबीआई के भीतर जो कुछ
भी घटित हुआ उस पर ग़ालिब की ये पंक्तियाँ बिलकुल फिट बैठती हैं। भारतीय
मीडिया का एक हिस्सा इस बात का शोक मना रहा था कि सीबीआई जैसी विश्वसनीय
संस्थाएँ जनता का विश्वास खो रही हैं। यह कानून के शासन (रुल ऑफ़ लॉ) के लिए
खतरा है। परन्तु यह घटनाक्रम वास्तव में वर्षों से चली उस प्रक्रिया की
अभिव्यक्ति है जिसके तहत सीबीआई जैसी संस्थाओं को सत्तारूढ़ सरकारें अपने
मातहत रखने की कोशिशे करती आई हैं। अतीत में भी जाँच व निगरानी संस्थाएँ
सत्तारूढ़ पार्टी के सेवक की तरह व्यवहार करती रही हैं; चाहे वे ई.डी.,
आई.टी. विभाग, सीवीसी या सीबीआई जैसी संस्थाएँ ही क्यों न रही हो। इनका
इस्तेमाल सत्तारूढ़ पार्टी अपने राजनीतिक हित साधने, अपने प्रतिद्वन्दियों
पर काबू रखने के लिए करती रही हैं। ज्यादा दिन नहींं बीते जब सुप्रीम कोर्ट
ने सीबीआई को लेकर यह टिप्पणी की थी कि सीबीआई पिंजड़े के तोते के समान है।
परन्तु यहाँ मोदी सरकार इस ‘तोते’ को फासीवादी शासन तंत्र का एक अंग बनाने
में तुली हुई है और उसकी सापेक्षिक स्वतत्न्रता को खत्म कर रही है। सीबीआई
में विगत समय जो हाई वोल्टेज ड्रामा घटित हुआ उसके तार पीएमओ व राफेल सौदे
से भी जुड़ते हैं। राफेल मामले में तो पहले ही सरकार की भद्द पिट चुकी है।
लेकिन इस पूरे प्रकरण का अपना राजनीतिक महत्व भी है। पहला यह कि जिस
“शुचिता” व “ईमानदारी” की दुहाई देती हुई भाजपा सत्तासीन हुई थी उसकी पोल
पट्टी अब खुल चुकी है। दूसरा किसी भी फासीवादी उभार की प्रमुख लाक्षणिकता
उसका अधिसत्तावादी चरित्र होता है, व्यवस्था के हरेक उपकरण को अपने एजेंडे
को साधने के लिए पूरी तरह से अपने मातहत करने की महत्वाकांक्षा, जो इस पूरे
प्रकरण में साफ़ झलकती है।
इस हाई वोल्टेज ड्रामे की
शुरुआत तब हुई जब सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना पर माँस
व्यापारी मोईन कुरैशी से सम्बन्धित केस में एक बिचौलिए के जरिये घूस लेने
का आरोप लगा। मजेदार बात यह है कि स्पेशल डायरेक्टर अस्थाना ने अगस्त माह
में कैबिनेट सेक्रेटरी को पत्र लिखकर सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा पर कुरैशी
से तीन करोड़ रुपये की रिश्वत लेने का आरोप लगाया था। 24 अक्टूबर की रात 2
बजे सरकार द्वारा आलोक वर्मा आनन-फानन में पद से हटाने का फैसला जारी किया
गया। परन्तु, जिस तरह से मोदी सरकार ने यह फैसला लिया वह सन्देह ज़रुर पैदा
करता है चूँकि अलोक वर्मा की सीबीआई निदेशक के तौर पर नियुक्ति सुप्रीम
कोर्ट के चीफ जस्टिस व केंद्र सरकार से मिलकर बने कोलेजियम के तहत दो साल
के लिए हुई है, इस कार्यकाल के खत्म होने के पहले उन्हें बर्खास्त करना
प्रोटोकॉल के विरुद्ध है। फिलहाल केंद्र सरकार ने दोनों को छुट्टी पर भेज
दिया है व इस पूरे प्रकरण की जाँच का जिम्मा सी.वी.सी को सौंप दिया गया है।
हालाँकि सीवीसी इस मसले में खुद सन्देह के घेरे में है पर कौन सन्देह के
घेरे में नहींं है! अस्थाना के अतिरिक्त अन्य उच्च अधिकारी; डीएसपी
देवेन्द्र शर्मा, मनोज प्रसाद व सोमेश प्रसाद भी इस मामले की जद में हैं।
हालाँकि बात सिर्फ इतने तक नहीं रुकी है, अस्थाना रिश्वत केस की जाँच कर
रहे अधिकारी ए.के. बस्सी का तबादला अण्डमान कर दिया गया है जिनहोने इसके
खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, गौर करने वाली बात यह है कि
बस्सी ने अस्थाना पर जाँच के दौरान सहयोग न करने का आरोप लगाया था। एक और
चौंकाने वाले फैसले में केंद्र सरकार ने अन्तरिम सीबीआई निदेशक के तौर पर
विवादास्पद पुलिस अधिकारी एम. नागेश्वर राव को नियुक्त किया है। ज़ाहिर है
सरकार इस पूरे मामले की लीपा-पोती करने में जुटी हुई है, कुछ स्त्रोतों से
यह बात भी आ रही है कि आलोक वर्मा केंद्र सरकार से नजदीकी रखने वाले कुछ
उच्च अधिकारियों पर लगे भ्रष्टाचार की जाँच कर रहे थे। इसके साथ ही बात
सामने निकल कर आ रही है कि प्रशांत भूषण, यशवंत सिन्हा व अरुण शौरी द्वारा
राफेल सौदे पर सीबीआई को की गयी शिकायत का संज्ञान लेते हुए आलोक वर्मा
राफेल सौदे की भी जाँच शुरू करने वाले थे व रक्षा मंत्रालय से इससे
सम्बन्धित दस्तावेजो की माँग की थी। साफ़ है कि केंद्र सरकार राफेल सौदे की
जाँच को अवरुद्ध करने का प्रयास कर रही है।
जब सैंय्याँ भये कोतवाल, अब डर कहे का!
अपने फासीवादी एजेंडों को अमल में लाने की
कोशिश में भाजपा विभिन्न सरकारी संस्थाओं के प्रमुख पदों पर लगातार अपने
करीबी लोगों को बिठाती रही है फिर चाहे वो विश्वविद्यालय, एफ़टीआईआई हो या
सीबीएफसी हो। राकेश अस्थाना को सीबीआई का विशेष निदेशक बनाना इसी श्रृंखला
की एक कड़ी भर था। राकेश अस्थाना के इतिहास पर भी एक निगाह डालने की
आवश्यकता है। वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से राकेश अस्थाना की
नजदीकियाँ दो दशक पुरानी हैं। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के प्रधानमन्त्री थे
तब अस्थाना गुजरात के पुलिस महकमे में उच्च अधिकारी थे। उनकी गिनती
नरेन्द्र मोदी के नजदीकी अधिकारियों में होती थी। 2002 में हुए गोधरा काण्ड
को उन्होंने पूर्व नियोजित नहीं बल्कि ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ कहा था।
जबकि 2009 में आयी जाँच रिपोर्ट में साबित हुआ है कि यह पूर्वनिर्धारित था।
उनपर वित्तीय अनियमितता के आरोप भी लगे है। अभी हाल में एक रिटायर्ड
पी.एस.आई. ने सूरत के पुलिस कमिश्नर रहे राकेश अस्थाना पर 2013-2015 के
दौरान पुलिस वेलफेयर फण्ड के 20 करोड़ रुपये अवैध तरीके से भाजपा को चुनावी
चन्दे के तौर पर देने का आरोप लगाया था। “आश्चर्यजनक” रूप से इस मामले की
फाइलें गुम हो गयी हैं। भाजपा से उनकी नजदीकी ही थी जिसके फलस्वरुप उन्हें
सीबीआई के विशेष निदेशक जैसा महत्वपूर्ण पद मिला। सीबीआई के अन्दर भी वे
सत्तारुढ पार्टी का ही चेहरा थे। परन्तु इस प्रकरण में वे बुरी तरह फँसे
नज़र आ रहे हैं। खैर, अब चूँकि अस्थाना पर रिश्वतखोरी का आरोप है व वे
पदच्युत हो चुके है, इसलिए सीबीआइ पर अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए मोदी
सरकार ने एम. नागेश्वर राव को अन्तरिम निदेशक के तौर पर नियुक्त किया है।
इसके लिए मोदी सरकार ने तमाम नियम कायदे व नियुक्ति पद्धति को ताक पर रख
दिया। अव्वल बात यह कि एक तो राव केवल आईजी रैंक के अधिकारी है और उन्हें
देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी में निदेशक जैसा बड़ा पद दे दिया जबकि उनका
पिछला रिकॉर्ड काफी अच्छा नहीं रहा है। उनकी एक मात्र उपलब्धि संघ व भाजपा
का करीबी होना है। राव उड़ीसा कैडर के आईपीएस अधिकारी रहे हैं और कार्यकाल
के दौरान उनका विवादों से चोली दमन का रिश्ता रहा है। उनपर अक्सर भड़काऊ
बयानबाजी के आरोप लगते रहे हैं।1998 में अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस के
अवसर पर आयोजित समारोह में उन्होंने भारतीय संविधान को पक्षपाती बताया व
इसे अल्पसंख्यकों का हितैषी बताया। इसी वर्ष एक अन्य समारोह में उन्होंने
मुस्लिमों, ईसाइयों व कम्युनिस्टों को मानवाधिकार के लिए सबसे बड़ा खतरा
बताया। इसी तरह के भड़काऊ बयान के लिए उन पर एफ़.आई.आर. भी दर्ज है। 2008 में
हुए कन्धमाल दंगों के समय वे कन्धमाल जिले में आईजी के पद पर थे। दंगे के
दौरान उन्होंने दंगाग्रस्त इलाको में सीआरपीएफ़ की गश्ती को शाम 6 बजे से
सुबह 6 बजे तक निषिद्ध कर दिया था जिसका फायदा उठाकर हिन्दू चरमपंथियों ने
ईसाइ बहुल इलाकों में मारकाट मचायी व कई निर्दोषों की हत्या की। दंगों के
दौरान उनकी भूमिका शक के घेरे में रही। इतना ही नहीं उड़ीसा अग्निशमन विभाग
में ए.डी.जी. रहते हुए यूनिफॉर्म खरीद में 3 करोड़ रुपये की हेराफेरी करने
का आरोप भी उनपर लगा है। यहाँ तक कि उनकी पत्नी मनिम संध्या पर भी मनी
लॉन्ड्रिंग के आरोप लगे हैं। राव पर लगे आरोपों की जाँच पूर्व निदेशक आलोक
वर्मा छुट्टी पर भेजे जाने के पहले कर रहे थे। सीवीसी को भी राव की
कारगुजारियों का अंदाज़ा था परन्तु किन्ही “रहस्मयी कारणों” से सी.वी.सी भी
राव पर कारवाई करने में असफल रही। अब इतने कारनामों के बावजूद राव का
निदेशक पद पर चुना जाना दर्शाता है कि मोदी सरकार सी.बी.आई पर अपना
नियंत्रण नहीं छोड़ने वाली है।
और अन्त में …
इस ड्रामे का आखिरी अध्याय क्या होगा यह
तो वक़्त ही बताएगा, पर इतना स्पष्ट है कि भारत में यह फासीवादी उभार अब एक
ऐसा “जगरनौट” (न रुकने वाला दैत्य) बन चुका है जो अपनी ताकत के नशे में
इतना अन्धा है कि अपने अस्तित्व को चुनौती देने वाले हर सम्भव खतरे को
नासूर बनने के पहले ही कुचल सकता है। इसके लिए वह कानून व नियमावलियों से
खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकता है। जैसा कि लेख में पहले कहा गया है कि जिस
“शुचिता”, “पारदर्शिता” व “ईमानदारी” का लबादा ओढ़ कर भाजपा सरकार सत्ता में
आयी थी वो अब घिस चुका है। अब यह दिन-ब-दिन और ज्यादा नग्न और क्रूर होती
जाएगी। वैसे एक सबक तो इसमें भारत के प्रगतिशील तबके के लिए भी है। आज भी
कई लोग यह समझते है कि इस सम्वैधानिक संस्थाओं व अन्य एजेंसियों की
“पवित्रता” व “निष्पक्षता” को बचाकर इस फासीवादी उभार को रोका जा सकता है,
कम से कम अब उन्हें यह मुगालता छोड़ देना चाहिए। वैसे भी ग़ालिब ने भी खूब
लिखा है…
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल को खुश रखने को ग़ालिब यह ख़याल अच्छा है
लेखक : विवेक
आलेख साभार : मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान पत्रिका
जुलाई-दिसंबर 2018 अंक
जुलाई-दिसंबर 2018 अंक
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