पाड़े जी के घर के सामने से बहती बजबजाती दुर्गन्धयुक्त नाली और उसमें घुसा एक राक्षस कद का आदमी! घर के भीतर से आती एक तीख़ी आवाज़-
"राम!"
"राम!"
"राम!"
"का सभई धरम नाले में घोरकर पी गये हो पाड़े जी!"
"अरे ज़रा समाज का तो ख़्याल कर लिया होता।"
"अब क्या अपनी जूती सर पर रखोगे!"
"अब क्या अपनी जूती सर पर रखोगे!"
गंभीर व्यंग्य करती हुई चिकनी पड़ाईन पाड़े जी को दो टूक सुनाती है।
"का हरज है!"
"ख़ाली गिलास से पानी ही तो पीया रहा चमनवा जमादार।"
"बड़ी प्यास लगी रही बेचारे को।"
"सुबह से तुम्हारा संडास साफ़ कर रहा है।"
"आख़िर ऊ भी तो इंसान है!"
कहते हुए पाड़े जी चिकनी पड़ाईन के दरबार में अपनी बात बड़ी ही मज़बूती के साथ रखते हैं।
"इतनी ही इंसानियत तुम्हरे दिल में हिलोरे मार रही है तो उस कलमुँहे को अपना दामाद क्यों नहीं बना लेते!"
"और आगी में डाल दो अपने सारे धर्म-शास्त्र और वेद-पुराणों की सीख!"
"और बंद करो ये जाति-प्रथा!"
"दिखा दो अपनी फटी जाँघिया इस नये ज़माने को!"
"दिखा दो अपनी फटी जाँघिया इस नये ज़माने को!"
"अब बोलो!"
"बोलते काहे नहीं!"
"मुँह काहे बंद हो गया?"
"अब नहीं दिखता क्या चमनवा जमादार में नाली का ईश्वर!"
चिकनी पड़ाईन के इस कोरे तर्क के सामने पाड़े जी अपना शस्त्र
डालकर उसका बेढंगा मुँह ताकने लगे। उधर इन दोनों पति-पत्नी की बातें
सुनकर चमनवा जमादार गटर की नाली से अपना कीचड़ से सना मुँह निकाल खिखियाकर
हँसने लगा।
चमनवा जमादार पाड़े जी की हालत देखकर मानो कह रहा हो कि-
"पाड़े जी अपनी सुधारवादी बातें अपने थैले में ही रखिए नहीं तो पूरी सृष्टि ही उलट पड़ेगी।"
लेखक : ध्रुव सिंह 'एकलव्य'
वाराणसी, उत्तर प्रदेश
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